LLB Hindu Law Part 6 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download

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तो वह व्यक्ति प्राकृतिक संरक्षक के रूप में इस धारा के प्रावधानों के अन्तर्गत कार्य करने के लिये हकदार नहीं होगा।

जीजाबाई विठ्ठलराव गजरा बनाम पठान खाँ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह विधि निरूपित किया कि अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत कानन यह है कि सामान्यतः जब पिता जीवित रहता है तो वही अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक होता है और उसके बाद उसकी माता उसकी संरक्षिका होती है और जहाँ पिता जीवित है, अवयस्क पुत्री की माता से अलग हो गया है तथा अवयस्क के हितों का कोई ध्यान नहीं रखता तो ऐसी स्थिति में पिता को अजीवित (Not alive) समझा जायेगा

और माता को ही अवयस्क के शरीर एवं सम्पत्ति का प्राकृतिक संरक्षक माना जायेगा तथा उसे अवयस्क की सम्पत्ति को पट्टे द्वारा बाँधने का हक प्राप्त है। इस प्रकार पिता जहाँ संरक्षक के दायित्वों को निभाने में असफल होता है अथवा अनवधानता बरतता है अथवा असमर्थ हो जाता है तो वहां माता को नैसर्गिक संरक्षक के समस्त अधिकार एवं कर्तव्य बिना न्यायालय के घोषित किये ही प्राप्त हो जाते

सोभादेई बनाम भीमा तथा अन्य के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि अवयस्क का पिता उसका स्वाभाविक संरक्षक है। अवयस्क जो पाँच वर्ष से अधिक उम्र का है और माता के साथ रहा है, पिता की संरक्षकता में माना जायेगा। उसकी माता उसके अनन्य मित्र (Next friend) के रूप में उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। केवल पिता को ही उसके विरुद्ध किसी वाद में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। संरक्षकता का प्रथम अधिकार पिता को दिया गया है।

व्याख्याइस धारा में पिता और माता पद के अन्तर्गत सौतेला पिता और सौतेली माता नहीं आते।

इस धारा के अन्तर्गत एक दत्तक पुत्र अथवा दत्तक पुत्री की प्राकृतिक संरक्षकता के विषय में कुछ नहीं कहा गया है, किन्तु जैसा कि दत्तक-ग्रहण में पुत्र अथवा पुत्री प्राकृतिक परिवार से दत्तक-ग्रहीता परिवार में चले जाते हैं, दत्तक-ग्रहीता पिता और उसके बाद दत्तक-ग्रहीता माता उसके नैसर्गिक संरक्षक समझे जायेंगे। यह बात धारा 7 में स्पष्ट की गई है।

जब तक पिता जीवित रहता है, माता अवयस्क की प्राकृतिक संरक्षिका नहीं हो सकती और यदि पिता संरक्षक होने से अस्वीकार करता है अथवा प्राकृतिक संरक्षक के रूप में दायित्वों के निर्वाह में असावधानी करता है तो उस दशा में माता अवयस्क के संरक्षक होने की शक्तियों को प्राप्त करने के लिये विधिक कार्यवाहियाँ अपना सकती है।

इस बात का समर्थन केरल उच्च न्यायालय ने पी० टी० चाथू चेत्तियार बनाम करियत कुन्नूमल कानारन के वाद में किया। न्यायालय के अनुसार अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक उसका पिता होगा यदि वह जीवित है। यदि पिता निर्योग्य हो गया है अथवा मर चुका है तभी माता प्राकृतिक संरक्षकता का अधिकार प्राप्त करती है। पिता के जीवन-काल में यदि वह किसी प्रकार के निर्योग्यता का शिकार नहीं है तो माता को पिता के अधिकार में हस्तक्षेप करने की क्षमता नहीं होती। पिता के जीवन-काल में अवयस्क की सम्पत्ति का माता द्वारा अन्यसंक्रामित किया जाना अनधिकृत एवं शून्य होता है।

पिता एवं माता को अवयस्क की जिस सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिकार प्राप्त होता

1. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 3151

2. पन्नी लाल बनाम राजिन्दर सिंह, (1993) 4 एस० सी० सी० प० 38: देखिये नारायण बाग सम्पूर्णा, 1968 पटना 318।

3. ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1801

4. नारायण सिंह बनाम सम्पूर्ण कौर, 1968 पटना 318: देखें, रुचि माजू बनाम आई० आर० 2011, एस० सी० 15521

5. ए० आई० आर० 1984 केरल 1181

है, वह अवयस्क की पृथक् सम्पत्ति होती है अथवा वह सम्पत्ति जिस पर उसका सम्पूर्ण आधिपत्य होता है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अवयस्क का जो अंश होता है, उसके सम्बन्ध में संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता।

इस धारा के अन्तर्गत पिता के बाद माता अवयस्क की सम्पत्ति एवं शरीर की संरक्षिका होती है, उसका पुनर्विवाह संरक्षकता के अधिकार के लिए निर्योग्य नहीं होता।

संरक्षक होने की अयोग्यतायेंअधिनियम की धारा 6 के अनुसार निम्नलिखित दशाओं में कोई व्यक्ति संरक्षक बनने के अयोग्य हो जाता है

(1) धर्म-परिवर्तन से उत्पन्न अयोग्यता।

(2) नागरिक (Civil) मृत्यु से उत्पन्न अयोग्यता।’

(3) अवयस्कता से उत्पन्न अयोग्यता।’

(4) जब संरक्षकता अवयस्क के कल्याण के लिए नहीं है।

(1) धर्म-परिवर्तनइस वर्तमान अधिनियम के पास होने के पूर्व धर्म-परिवर्तन से संरक्षक के अधिकार नहीं प्रभावित होते थे। इस बात से कि पिता ने धर्म-परिवर्तन कर लिया है, उसका पुत्र की अभिरक्षा का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता था। किन्तु यदि धर्म-परिवर्तन के समय पिता ने स्वेच्छा से इस प्रकार के पैतृक अधिकार को त्याग दिया है और पुत्र की अभिरक्षा को दूसरे के हाथ सौंप दिया है तो उस दशा में न्यायालय पुत्र की अभिरक्षा को पिता के हाथ में नहीं दे सकता, यदि वह पुत्र के हितों के विपरीत है। किन्तु जहाँ किसी हिन्दू माता ने अपना धर्म-परिवर्तन किया है वहाँ न्यायालय पुत्र को माता की अभिरक्षा से हटाकर किसी एक हिन्दू संरक्षक के अधीन कर सकता है, यदि वह अवयस्क के हितों के अनुकूल हो। इसी प्रकार जहाँ पत्नी ने विवाह-विच्छेद करके किसी दूसरे धर्मावलम्बी के साथ विवाह कर लिया है उससे अपने पुत्र को अपनी अभिरक्षा में रखने का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता।

वर्तमान अधिनियम ने इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये हैं। अधिनियम द्वारा विहित कोई भी प्राकृतिक संरक्षक अर्थात् पिता, माता अथवा पति के हिन्दू न रह जाने पर संरक्षक बनने का अधिकारी नहीं रह जाता। विजय लक्ष्मी बनाम पुलिस इन्स्पेक्टर के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पिता इस्लाम धर्म को स्वीकार करके एक मुस्लिम महिला से विवाह कर लेता है वहाँ वह नैसर्गिक संरक्षक होने का विधिक अधिकारी नहीं रह जाता।

 (2) सिविल मृत्यु (Civil death)—कोई भी व्यक्ति जिसने पूर्णतया अंतिम रूप से संसार त्याग दिया है अथवा यती अथवा संन्यासी हो चुका है, वह अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक होने का अधिकारी नहीं रह जाता। कोई व्यक्ति संन्यासी अथवा यती कह देने मात्र से संन्यासी या यती नहीं हो जाता। संसार का त्याग यथार्थ रूप में पूर्णतया अन्तिम होना चाहिये।

“वह व्यक्ति जो संन्यासी अथवा यती होने की इच्छा करता है, उसे अपना मृत्यु-संस्कार तथा श्राद्ध विधिवत् करना चाहिये तथा अपनी सभी सम्पत्ति को अपने पुत्रों तथा ब्राह्मणों में विभाजित कर देनी चाहिये। उसके पश्चात् होम आदि की क्रिया करके, जल में खड़ा होकर इस उद्देश्य का मन्त्र

1. बक्शी राम लाधाराम बनाम मु० शीला देवी, ए० आई० आर० 1960 पंजाब 3041

2. खण्ड ए, धारा 61

3. खण्ड ब, धारा 6 का परन्तुक।

4. धारा 101

5. धारा 13 (2)।

6. मकन्द बनाम नहुदी, 25 कलकत्ता 8811

7. मेन : हिन्दू विधि, पृष्ठ 867।

8. ए० आई० आर० 1991 मद्रास।

तीन बार पढ़ना चाहिये कि उसने संसार की समस्त वस्तुएँ, पुत्र तथा सम्पत्ति आदि को त्याग दिया है”

(3) अवयस्कता-अधिनियम की धारा 10 में यह विहित किया गया है कि कोई अवयस्क किसी अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक बनने के अयोग्य है।

(4) अवयस्क के कल्याण के प्रतिकूल-कोई भी ऐसा व्यक्ति संरक्षक नहीं बन सकता जिसकी संरक्षकता न्यायालय की दृष्टि में अवयस्क के कल्याण के विपरीत होगी। धारा 13 के अन्तर्गत अवयस्क के कल्याण को सर्वोपरिता दी गई है। अतएव अवयस्क की संरक्षकता उसके कल्याण की अनुकूलता के आधार पर की जायेगी। श्रीमती गंगाबाई बनाम भेरूलाल के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह कहा कि विधि में पिता एक प्राकृतिक संरक्षक होता है तथा सामान्यत: उसे पुत्र को अपने साथ रखने के प्राकृतिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। किन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं। कि न्यायालय को एक भिन्न विचारधारा धारण करनी पड़ती है जबकि पिता को एक प्राकृतिक संरक्षक होने के बावजूद अवयस्क को उसकी संरक्षकता में नहीं दिया जा सकता। यदि पिता की संरक्षकता में सन्तान का कल्याण खतरे में प्रतीत हो तथा माता की संरक्षकता में उसका कल्याण समान रूप से अथवा अधिक मात्रा में प्रतीत हो तो पिता आवश्यक रूप से संरक्षकता का दावा नहीं कर सकता।

बम्बई उच्च न्यायालय ने पिता को अपनी अवयस्क सन्तान से मिलने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया। पिता ने न्यायालय के आदेश के बावजूद भी, अपनी अवयस्क सन्तान को, जो माता के साथ रहती थी, चार हजार रुपये की राशि प्रतिमास की दर से प्रदान नहीं कर रहा था। न्यायालय ने कहा कि जब तक पिता न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करता उसे अपनी सन्तान के पास पहुँचने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

के वेकेंट रेड्डी व अन्य बनाम चिनिप्पा रेड्डी विश्वनाथ रेड्डी के मामले में अपवयस्क के पिता इंजीनियरिंग कालेज के किसी पद पर कार्यस्त थे जिन्होंने बहुत सी पुस्तकों का लेखन का कार्य किया, तथा उसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी। उसकी पहली पत्नी की मृत्यु पुत्र के जन्म के पश्चात् हो गयी थी। कुछ समय पश्चात् उसने अपना दूसरा विवाह अपनी सहयोगी महिला के साथ सम्पन्न किया। विवाहोपरान्त पति-पत्नी ने इस बात के लिये समझौता किया कि वह किसी अन्य सन्तान को जन्म नहीं देगे और वह पहली पत्नी के बच्चे का भरण-पोषण अच्छे तरीके से करते रहेंगे। कुछ समय उपरान्त उसकी पहली पत्नी के माता-पिता ने न्यायालय में इस बात का आवेदन किया कि उनके पुत्री के पुत्र को उनकी संरक्षा में दिया जाय क्योंकि उस पुत्र का पालन-पोषण उचित तरीके से नहीं हो पा रहा था, जो अवयस्क के कल्याण के प्रतिकूल था। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर इस बात का अवलोकन किया कि पहली पत्नी के पुत्र का भरण-पोषण तथा संरक्षण उचित रूप से नहीं हो पा रहा था। अत: न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पत्र का हित अनुकूल न होने के कारण ऐसे पुत्र का संरक्षण करने का अधिकार उसके नाना-नानी को दे दिया जाय।

विधवा द्वारा पुनर्विवाह का प्रभाव कोई भी हिन्दू विधवा अपनी अवयस्क सन्तान के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिमान्य अधिकार अपने पुनर्विवाह पर खो नहीं देती। पिता की मृत्यु के बाद प्राकृतिक संरक्षक के रूप में माता के अधिकार असीम होते हैं। यह बात अधिनियम की धारा 6 के अन्तगत दी गई व्याख्या से पूर्णतया स्पष्ट है।

दत्तक पुत्र का प्राकृतिक संरक्षक-अधिनियम की धारा 7 के अनुसार अवयस्क द प्राकृतिक संरक्षकता दत्तकग्रहीता पिता में चली जाती है। दत्तकग्रहीता पिता की मृत्यु के बाद संरक्षता

1. शीला बनाम जीवन लाल, ए० आई० आर० 1988 ए० पी० 2751

2. ए० आई० आर० 1976 राज० 1531

3. विनोद चंद बनाम श्रीमती अनुपमा, ए० आई० आर० 1993 बा० 250

4. ए० आई० आर० 2009 आन्ध्र प्रदेश 011

दत्तकग्रहीता माता में निहित हो जाती है।

दत्तक पुत्र के नैसर्गिक पिता-माता उस पर कोई अधिकार नहीं रखते।

प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक संरक्षक के अधिकार

अधिनियम की धारा 8 में अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति के सम्बन्ध में प्राकृतिक संरक्षक के अधिकारों की विवेचना की गई है।

धारा 8 इस प्रकार है-

(1) हिन्दू अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसे समस्त कार्यों को कर सकता है जो अवयस्क के लाभ के लिये अथवा उसकी सम्पदा के उगाहने, प्रतिरक्षा या लाभ के लिये आवश्यक, युक्तियुक्त तथा उचित हैं। संरक्षक किसी व्यक्तिगत संविदा द्वारा किसी भी दशा में अवयस्क को बाध्य नहीं कर सकता।

(2) प्राकृतिक संरक्षक न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना

(क) अवयस्क की अचल सम्पत्ति के किसी भाग को बन्धक या भारित (Charge) या विक्रय, दान, विनिमय या अन्य किसी प्रकार से हस्तान्तरित नहीं करेगा, या

(ख) ऐसी सम्पत्ति के किसी भाग को पाँच वर्षों से अधिक होने वाली अवधि के लिये या जिस तारीख को अवयस्क वयस्कता प्राप्त करेगा, उस तारीख से एक वर्ष से अधिक होने वाली अवधि के लिये पट्टे पर नहीं देगा।

(3) प्राकृतिक संरक्षक ने उपधारा (1) या (2) के उल्लंघन में अचल सम्पत्ति का जो कोई व्ययन किया है, वह उस अवयस्क की या उसके अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति की प्रेरणा पर शून्यकरणीय होगा।

(4) कोई न्यायालय प्राकृतिक संरक्षक की उपधारा (2) में वर्णित कार्यों में से किसी को भी करने के लिये अनुज्ञा आवश्यकता के लिये या अवयस्क के स्पष्ट लाभ की दशा के अतिरिक्त अन्य किसी दशा में न देगा।

(5) संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1809 की उपधारा (2) के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए आवेदन तथा उसके सम्बन्ध में, सभी दशाओं में इस प्रकार लागू होगा. जैसे कि यह उस अधिनियम की धारा 29 के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिये आवेदन हो तथा विशिष्ट रूप में

(क) आवेदन से सम्बन्धित कार्यवाहियों के विषय में यह समझा जायगा कि वे उस अधिनियम के अधीन उसकी धारा 4-क के अर्थ में कार्यवाहियाँ हैं।

(ख) न्यायालय उस अधिनियम की धारा 31 की उपधाराओं (2), (3) और (4) में उल्लिखित प्रक्रिया का पालन करेगा और अधिकारों से युक्त होगा। (ग) प्राकृतिक संरक्षक को उन कार्यों में से किसी को, जो इस धारा की उपधारा (2) में वर्णित हैं, करने के लिए अनुज्ञा देने से इन्कार करने वाले न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें साधारणतया उस न्यायालय के निर्णय की अपील होती है। इस धारा में न्यायालय से तात्पर्य नगर-व्यवहार न्यायालय अथवा जिला-न्यायालय अथवा संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 4 के अधीन सशक्त न्यायालय से है, जिसके क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत वह अचल सम्पत्ति है जिसके बारे में आवेदन किया गया है और जहाँ अचल सम्पत्ति किसी ऐसे एक से अधिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार शित है. वहाँ उस न्यायालय से तात्पर्य है जिसकी स्थानीय सीमाओं के क्षेत्राधिकार

में उस सम्पत्ति का कोई प्रभाग स्थित है। पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत संरक्षक के बहुत विस्तृत अधिकार थे। प्राकृतिक संरक्षक के, अवयस्क के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार के विषय में प्रिवी कौंसिल ने एक महत्वपूर्ण वाद में निर्णीत किया था जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आवश्यकता की दशा में नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति को बन्धक रख सकता है, बेच सकता है, उस पर प्रभार निर्मित कर सकता है तथा अन्य प्रकार से उसका निर्वर्तन कर सकता है, यद्यपि इस प्रकार के अधिकार सीमित नहीं हैं। इस वाद का मूल मन्तव्य यह था कि नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का परम आवश्यकता की दशा में तथा उसकी सम्पदा के लाभार्थ अन्यसंक्रामण कर सकता है। इस प्रकार अन्यसंक्रामण केवल नैसर्गिक संरक्षक का ही विशेषाधिकार माना जाता था।

बम्बई उच्च न्यायालय ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि नैसर्गिक संरक्षक के अधिकार के अन्तर्गत अल्पवयस्क की अभिरक्षा सामान्यतया नैसर्गिक अभिभावक को ही प्रदान जाती है। लेकिन विशेष परिस्थिति में नैसर्गिक अभिभावक के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति उसी स्थिति में नियुक्त किया जा सकता है जबकि नैसर्गिक अभिभावक अपने दायित्वों में अक्षम हो या नैसर्गिक अभिभावक एवं अल्पवयस्क के हितों में स्पष्ट टकराव की स्थिति हो अथवा कोई अन्य अपवादग्रस्त परिस्थिति उत्पन्न हो गयी हो जैसे पिता द्वारा पुनर्विवाह सौतेली माँ एवं सौतेले भाई-बहन के कारण अल्पवस्यक के साथ दुर्व्यवहार करना आदि। उपरोक्त परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये अपवादस्वरूप अल्पवयस्क के हितों के संरक्षक करने वाले व्यक्ति को उसका अभिभावक नियुक्त किया जा सकता है।

गोपालकृष्ण शाह बनाम कृष्णशाह के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार किया तथा यह निरूपित किया कि जहाँ माता ने अपने ऐसे मकान को बेच दिया. जिसके ऊपर बन्धक ऋण का भार था तथा जिसके उन्मोचन की सम्भावना भी नहीं रह गई थी, एक विधिक आवश्यकता समझी जायगी। संरक्षक द्वारा किसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण आवश्यकता की दशा में अथवा सम्पदा के लाभार्थ किया जा सकता है। अन्यसंक्रामण की आवश्यकता मकान खरीदने वाले को सिद्ध करनी पड़ेगी। विधिक आवश्यकता का निर्णय प्रत्येक दशा में अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार किया गया था। अवयस्क का भरण-पोषण उसकी सम्पत्ति की मरम्मत, उसके पिता की अन्त्येष्टि क्रिया तथा पिता के ऋण को चुकाना’ आदि विधिक आवश्यकता के अन्तर्गत आते थे, जिनके लिये संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर सकता था। श्री रमलू बनाम पुण्डरी कश्यप के वाद में फेडरल कोर्ट ने निम्नलिखित बातों को प्रतिपादित किया था

1. कोई भी ऐसा ऋण जो संरक्षक ने अवयस्क की आवश्यकता अथवा उसकी सम्पदा के लाभों के लिये नहीं लिया है, अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी नहीं होगा।

2. ऐसा ऋण जो संरक्षक ने अवयस्क की आवश्यकता के लिये अथवा उसकी सम्पत्ति के लाभों के लिये लिया है, अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी होगा।

3. यदि संरक्षक ने परक्राम्य-लिखत द्वारा किसी दायित्व को धारण किया है तो वह दायित्व अवयस्क की सम्पदा के विरुद्ध होगा।

1. हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई, 6 एम० आई० ए० 3931

2. अशोक शंकर राव घटगे बनाम महिपति यशवंत खटाले. ए० आई आर० 20

3. 1961 मद्रास 3481 4. सुन्दर नारायन बनाम वेनदराम,

4 ए० सी० 761

5. हरीमोहन बनाम गनेश चन्दर, 10 ए० सी० 823 पर्णपीठ।

6. नाथराम बनाम छग्गन, 14 बम्बई 5621

7. मुरारी बनाम तयाना, 20 बम्बई 2961

8. 1949 एफ० सी० पृ० 2181

अमिरथा कदम्बन बनाम सोरनथ कदम्बन के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी अवयस्क के संरक्षक द्वारा उसकी अवयस्कता की स्थिति में किये गये अन्यसेक्रामण को अपास्त कराने का दावा करने का अधिकार केवल व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। धारा

(3) के अधीन अन्यसंक्रान्ती को इस प्रकार के अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का दावा करने से अपवर्जित नही किया जा सकता। धारा 8 (3) में “उसके अधीन का दावा करने वाले किसी व्यक्ति” पद का अभिप्राय ऐसे किसी व्यक्ति से है जो अवयस्क के संरक्षक द्वारा किये गये अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का अधिकार प्राप्त करता है। इस प्रकार अन्यसंक्रान्ती भी अवैध अन्यसंक्रामण को अपास्त करवा सकता है।

पी० डी० चायू चेत्तियार बनाम के० कुत्रुमक्त कनारन के बाद में पिता की मौजूदगी में माता ने अवयस्क की अचल सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर दिया जब कि पिता किसी प्रकार की नियोग्यता का शिकार नहीं था, ऐसी स्थिति में यदि पिता अन्यसंक्रामण प्रलेख में कहीं उल्लिखित हो अथवा साक्षी के रूप में हस्ताक्षर कर दिया हो तो अन्यसंक्रामण वैध नहीं हो सकता। न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना किया गया अन्यसंक्रामण अवयस्क की इच्छानुसार शून्यकरणीय होगा न कि शून्य। किन्तु इस प्रस्तुत मामले में अन्यसंक्रामण माता द्वारा अनधिकृत रूप से किये जाने के कारण शून्य होगा क्योकि माता अन्यसंक्रामण के लिये उपयुक्त प्राकृतिक संरक्षक नहीं थी जब कि पिता जीवित था। पुन: केरल उच्च न्यायालय के अनुसार धारा 8 (2) के अन्तर्गत किसी प्रकार का अन्यसंक्रामण विधिमान्य नहीं समझा जायेगा, यदि न्यायालय से उसके सम्बन्ध में पूर्व अनुज्ञा नहीं प्राप्त कर ली गई है। किन्तु जहाँ अवयस्क की सम्पत्ति का हस्तान्तरण नैसर्गिक संरक्षक द्वारा किया गया हो और न्यायालय की अनुज्ञा न प्राप्त की गई रही हो वहाँ अवयस्क यदि वयस्कता प्राप्त करने के बाद उस हस्तान्तरण का स्वेच्छया अनुसमर्थन कर दे तो हस्तान्तरण विधिमान्य हो जाता है।

(1) अवयस्क के लाभ हेतु आवश्यक अथवा युक्तियुक्त तथा उचित कार्य-उपर्युक्त धारा में प्रयुक्त यह वाक्य इस बात का बोध कराता है कि नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क के लाभ के लिए उसके स्वास्थ्य, पालन-पोषण तथा शिक्षा पर आवश्यक नियन्त्रण रख सकता है। इस प्रकार की देख-रेख के अधिकार को वह शिक्षक तथा मित्र को भी सौंप सकता है। किन्तु उसे यह भी अधिकार होगा कि वह उनके अधिकारों को प्रतिसंहत भी कर सके। संरक्षक को यह अधिकार होगा कि वह अवयस्क के निवास स्थान को निर्धारित करे जिससे अवयस्क कुसंगति में न फँस सके। यह धारा उन अन्यसंक्रामणों के प्रति नहीं लागू होती जहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का प्रबन्धक अवयस्क के संयुक्त हित को अवयस्क के हित के लिए अथवा पारिवारिक आवश्यकता के लिए अन्य संक्रामित करता है। संरक्षक जहाँ किसी संविदा को अवयस्क के हित के लिये करता है किन्तु बाद में यह पता चलता है कि वह संविदा उसके हित के विरुद्ध है तो संविदा अनुयोज्य नहीं होगी।

मानिकचन्द्र बनाम रामचन्द्र के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम के पास हो जाने के बाद अवयस्क का संरक्षक उन सभी कृत्यों को करने का अधिकार रखता है जो अवयस्क के हित के लिये आवश्यक अथवा युक्तियुक्त हों। वह ऐसे समस्त कार्यों को

1. ए० आई० आर० 1970 मद्रास 1271

2. ० आई० आर० 1984 केरल 118; देखिए ए० आई० आर० 1989 ए० ओ० सी० ए० पी०।

3. जनार्दन पिल्ले बनाम भगवती कुट्टी अम्मा, ए० आई० आर० 1989 केरल 303।

4 शेख कासिम साहेब बनाम वसीरड्डी, ए० आई० आर० 1989 एन० ओ० सी० ए० पी०।

5. वजीर खाँ बनाम गनेश, 1926 इलाहाबाद 6871

6. फ्लेमिंग बनाम प्राट, आई० ए० जे० के० बी० (ओ० एस०) 1951

7. सग्गाबाई बनाम श्रीमती हीरालाल, ए० आई० आर० 1969 एम० पी० 321 .

8 दरबारा सिंह बनाम कमीन्दरसिह, ए० आई० आर० 1979 पं० एवं हरि० 2151

9. ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 5191

कर सकता है जो अवयस्क की सम्पदा की रक्षा अथवा हित के लिये जरूरी हो। इसका यह अर्थ कि संरक्षक अवयस्क को प्रसंविदा द्वारा बाध्य कर सकता है यदि ऐसा आवश्यक हो, यह बात अचल सम्पत्ति की खरीददारी के सम्बन्ध में भी लागू होती है। यदि वह अवयस्क की ओर से कोई सम्पत्ति खरीदता है तो अवयस्क का दायित्व क्रय-मूल्य चुकाने का पूरी तौर पर होगा। किन्तु अवयस्क अपने व्यक्तिगत प्रसावदा के द्वारा अवयस्क को बाधित नहीं कर सकता।

उपर्युक्त बाद में अवयस्कों की ओर से उनके नैसर्गिक संरक्षक माता द्वारा एक मकान खरीदने को संविदा की गई। संविदा के समय एक हजार रुपये की धनराशि अंतिम रूप से दे दी गई और यह तय हआ कि शेष धनराशि विक्रयपत्र की रजिस्ट्री के समय दी जायेगी। मकान के विक्रेता ने रजिस्ट्री लिखने से नामंजूर कर दिया। अत: संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वयस्कों की ओर से वाद दायर किया गया जो उच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि संरक्षक को इस प्रकार प्रसंविदा करने का अधिकार नहीं था, क्योंकि संरक्षक की यह व्यक्तिगत प्रसंविदा थी जिससे वह अवयस्को को बाधित नहीं कर सकती। उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और यह अभिनिर्धारित किया की संरक्षक इस प्रकार की प्रसंविदा करने में पूर्णतया समर्थ हैं यदि बह अवयस्क के हित से सम्बन्धित है।

उच्चतम न्यायालय ने धारा 8 के क्षेत्र की व्याख्या करते हुए यह कहा कि यह धारा नैसर्गिक संरक्षक द्वारा अचल सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण करने के अधिकार की सीमा की विवेचना करता है। जहाँ अवयस्क की माता बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा सम्पदा के प्रलाभ के बिना उसकी किसी सम्पत्ति को बेच देता है तथा इस आशय की अनुमति न्यायालय से भी नहीं प्राप्त की गई है वहाँ भले ही अवयस्क के पिता ने ऐसे विक्रय को प्रमाणित कर दिया हो, वहाँ ऐसे विक्रयनामा को नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विक्रयनामा नहीं माना जायेगा और वह अन्यसंक्रामण (विक्रय) इस धारा की सीमा के अन्तर्गत शून्य माना जायेगा न कि शून्यकरणीय।

रूमल बनाम श्रीनिवास के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मत को समर्थन देते हुये कहा कि अवयस्क के संरक्षक द्वारा की गई किसी संविदा का अवयस्क द्वारा तथा अवयस्क के विरुद्ध विनिर्दिष्ट रूप से पालन करवाया जा सकता है। हिन्दू विधि के अन्तर्गत नैसर्गिक संरक्षक को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह अवयस्क की ओर से संविदा करे और इस प्रकार की संविदा, यदि अवयस्क के हित में है तो उसके ऊपर बाध्यकारी होगा और वह लागू किया जायेगा। इसी प्रकार जहाँ किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये माता द्वारा अपने अवयस्क पुत्र की ओर से दावा दायर किया जाता है जब कि पिता जीवित है और माता तथा पिता के बीच सम्बन्ध ठीक नहीं है, वहां न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि माता और उसकी अवयस्क सन्तान के हितों में विरोध नहीं है तो इस प्रकार दावा करने का अधिकार माता को प्राप्त है।

हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई के वाद में प्रिवो कौसिल ने यह स्पष्ट रूप से निरूपित किया था जैसा कि पर्व उल्लिखित भी है कि आवश्यकता की दशा में अथवा सम्पदा के लाभ की दशा में अवयस्क को सम्पत्ति के प्रबन्धकर्ता को सीमित तथा सापेक्ष अधिकार प्राप्त है। यहाँ आवश्यकता की दशा से तात्पर्य विधिक आवश्यकता से है।।

ऋणदाता का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वह ऋण देने के पूर्व इस बात से अपने का सन्तुष्ट कर ले कि जो व्यक्ति ऋण ले रहा है, वह अवयस्क की सम्पदा के लाभ के लिए हा पर ऋणदाता युक्तियुक्त जांच-पड़ताल करने के बाद सद्भाव में ऋण देता है तो उस अब

1. (1993)4 एस० सी० सी०381

2. ए० आई० आर० 1985 दि० 1531

3. मुकेश बनाम देवनरायन, ए० आई० आर० 1987 एम० पी० 85; विशद । स्टेट ऑफ गुजरात, ए० आई० आर० 2013 गुजरात 251.

आवश्यकता से अवगत होने की दशा में विधि में उसके प्रभार को मान्यता प्रदान की जायेगी।

यदि अवयस्क के पास अनुत्पादक सम्पत्ति है जिसे अवयस्क का संरक्षक इस उद्देश्य से देता है कि वह उसके स्थान पर कोई उत्पादक सम्पत्ति खरीद ले तो उस दशा में यह बयनामा अवयस्क पर बाध्यकारी होगा।

अवयस्क की सम्पदा की उगाही-यदि अवयस्क की सम्पत्ति किसी तीसरे व्यक्ति के हाथ में है तो संरक्षक का यह कर्तव्य है कि वह उस सम्पत्ति को उससे वापस ले तथा उसकी उगाही करे। संरक्षक को यह भी अधिकार है कि उसे पुन: प्राप्त करने के लिये जो कुछ उचित व्यय करना पडे. करे।

जहाँ तक नैसर्गिक संरक्षक के अवयस्क की ओर से ऋण लेने की संविदा का प्रश्न है, उसमें इस बात पर न्यायिक निर्णयों में मतभेद है कि क्या इस प्रकार के ऋण की संविदा से अवयस्क की सम्पत्ति पर प्रभार निर्मित किया जा सकता है? एक वाद में यह स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित किया गया कि संरक्षक स्वयं अवयस्क को बाँधने के लिए व्यक्तिगत रूप में कोई प्रसंविदा नहीं कर सकता और यही स्थिति वर्तमान अधिनियम में अपनायी गयी है। प्रिवी कौंसिल ने भी उपर्युक्त मत का समर्थन किया और प्रतिपादित किया कि अवयस्क का संरक्षक कोई भी ऐसी प्रसंविदा नहीं कर सकता जिसके द्वारा भविष्य में वह संरक्षित की सम्पत्ति प्रभारित कर सके।

नैसर्गिक संरक्षक द्वारा सुलहनामासंरक्षक अपने संरक्षित की ओर से किसी मामले में सुलहनामा प्रस्तुत कर सकता है।’

विशुनदेव बनाम शिवगनी राय वाले वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि किसी अवयस्क के संरक्षक के लिए व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 22, नियम 7 के अन्तर्गत न्यायालय की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है, अर्थात् किसी मामले में सुलहनामे अथवा अस्थायी समझौता के लिये वह स्वयं सक्षम है तथा इस सम्बन्ध में केवल इतना ही पर्याप्त है कि समझौता अथवा सुलहनामा अवयस्क के प्रलाभ एवं हित के लिये किया गया है।

संरक्षक द्वारा ऋण की अभिस्वीकृति-प्राकृतिक संरक्षक तथा न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक अवयस्क के किसी ऋण अथवा उसके ब्याज की, समय की अवधि को बढ़ाने की दृष्टि से, अभिस्वीकृति कर सकता है, यदि वह अवयस्क की सम्पत्ति के लाभ के लिये अथवा उसकी रक्षा के लिए हो।’ संरक्षक को मृत ऋण को पुनर्जीवित करने का अधिकार नहीं है।

पारिवारिक समझौता-प्राकृतिक संरक्षक को यह भी अधिकार है कि वह अवयस्क की ओर से किसी पारिवारिक मामले का समझौता करके उसको तय कर ले, किन्तु यह उसी दशा में सम्भव है जब कि समझौता सद्विवेक पर आधारित दावे के विषय में हो।’

संरक्षक को यह भी अधिकार है कि वह किसी मामले को, जो परिवार की भलाई के लिये है, विवेचना के लिये भेज दे। पिता के जीवित होने की दशा में माता इस प्रकार के मामले को विवेचन के लिये नहीं भेज सकती।

संरक्षक द्वारा कोई भी कार्य संरक्षक-रूप में किया जाना चाहिये-संरक्षक द्वारा कोई भी

1. विधि प्रधान बनाम डैन्करा, 1963 उड़ीसा 1331

2. अब्दुलरहीम बनाम बरेरा, 61 आई० सी० 8071

3. धारा 530, मुल्ला : हिन्दू विधि देखिये।

4 विशनदेव बनाम शिवगनी राय, ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 2851

5. अन्नापगम्दा बनाम सगा दिग्यपा, 26 ब० 2211

6. धारा 531; मुल्ला की हिन्द्र-विधि।

7. बाला जी बनाम नाना, 22 बाम्बे 2071

8. शान्तीलाल मेवाराम बनाम मुन्शीराम केवलराम, 56 बाम्बे 5057

कार्य जो संरक्षक रूप में नहीं किया जाता, अवयस्क को नहीं बाँधता। यह बात सिद्ध करने की है कि वह कार्य संरक्षक द्वारा संरक्षक की हैसियत में किया गया था अथवा अपनी ओर से किया गया था। प्रथम उल्लिखित अवस्था में यह अवयस्क के लिये बाध्यकारी होता है यदि इस प्रकार का कार्य संरक्षक की अधिकार-सीमा के अन्तर्गत है। किन्तु दूसरी अवस्था में वह अवयस्क के लिए बाध्यकारी नहीं होता। केवल इस बात से कि अवयस्क का नाम संविदा में अथवा विक्रय-पत्र या बन्धक में नहीं है, यह प्रमाणित नहीं होता कि वह अवयस्क की ओर से नहीं किया गया है। प्रत्येक दशा में पत्र का भाषा तथा परिस्थितियों के ऊपर विचार करना पड़ता है जिसमें ये बाते सम्पन्न की गई थी।’

अवयस्क व्यक्तिगत प्रसंविदाओं से बाध्य नहीं होता-अधिनियम की धारा 8 (1) के अन्तर्गत यह स्पष्ट कहा गया है कि संरक्षक अवयस्क को अपनी व्यक्तिगत प्रसंविदा द्वारा किसी भी रूप में नहीं बाँध सकता। संरक्षक संरक्षित को साधारण संविदा द्वारा भी नहीं बाँध सकता। प्रिवी काउंसिल ने एक वाद में यह स्पष्ट कहा कि संरक्षक अवयस्क के नाम से कोई भी ऐसी संविदा सम्पन्न नहीं कर सकता जो अवयस्क के ऊपर कोई व्यक्तिगत दायित्व आरोपित करे। किसी भी धनराशि की आज्ञप्ति की निष्पन्नता में किसी अवयस्क को बन्दी नहीं बनाया जा सकता तथा कोई भी आज्ञप्ति अवयस्क के विरुद्ध इस आधार पर जारी नहीं की जा सकती कि संरक्षक ने अवयस्क की ओर से कोई संविदा सम्पन्न की थी जिसकी निष्पन्नता के लिए अवयस्क की सम्पत्ति प्रभारित की जाय अथवा बेच दी जाय। इस विषय में फेडरल कोर्ट ने 1949 में एक निर्णय दिया था जो निम्न प्रकार से निरूपित किया जा सकता है-

(1) किसी हिन्दू अवयस्क के संरक्षक को यह अधिकार नहीं है कि वह अवयस्क के अथवा उसकी सम्पदा पर बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा उसकी सम्पदा के बिना किसी लाभ के ऋण अथवा कर्ज लेकर व्यक्तिगत आभार उसके ऊपर आरोपित करे।

(2) कोई संरक्षक, यदि वह अवयस्क की सम्पदा में अवांछनीय रूप से हस्तक्षेप नहीं करने वाला है तो अवयस्क की सम्पत्ति से प्रलाभ तथा संरक्षण के लिए कोई ऐसी धनराशि कर्ज के रूप में ले सकता है जो अवयस्क की सम्पदा को प्रभारित कर सकती है।

(3) उपर्युक्त सिद्धान्त उस धनराशि के सम्बन्ध में भी अनुवर्तनीय होती है जो प्रतिभूति के आधार पर ऋण-रूप में लिया जाता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 68 के अन्तर्गत उपर्युक्त सिद्धान्त का एक अपवाद भी प्रदान किया गया है। हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 9 से यह बात स्पष्ट नहीं होती कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 9 के अन्तर्गत दिया गया नियम, हिन्द अवयस्क के सम्बन्ध में निष्प्रभ हो जाता है अथवा नहीं, किन्तु धारा 8 (2) में यह प्रदान किया गया है कि संरक्षक न्यायालय की स्वीकृति से कुछ जरूरी आवश्यकताओं के लिए अवयस्क की सम्पदा का अन्यसंक्रामण कर सकता है, इसलिये ऋणदाता न्यायालय की स्वीकृति लेकर अवयस्क की सम्पदा के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है।

आवश्यकताएँ क्या हैं?—वे कौन-सी आवश्यकताएँ होंगी, यह प्रमाण का विषय है। “आवश्यक वस्तुएँ वे हैं जिनके बिना कोई भी व्यक्ति उचित रूप से जीवित नहीं रह सकता। भोजन, वस्त्र, मकान तथा बौद्धिक शिक्षण एवं नैतिक तथा धार्मिक परिज्ञान जीवन के आवश्यक अंग मान जा

1. इन्दर चन्दर बनाम राधा किशोर, 19 कल० 507; नन्द प्रसाद बनाम अब्दुल अजीज, 442 8991

2. बघेल बनाम शेख ममुलिद्दीन, 11 बाम्बे 5511

3. महाराणा श्री रणवाल बनाम वादी लाल, 20 बाम्बे 61; केशव बनाम बालाज आर० 9961

4. कोन्डामखी बनाम मिनेगी : तादावरते बनाम सेनेनी (1949) 11 एफ० सा ल,

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