LLB Hindu Law Chapter 7 Post 9 Book Notes Study Material PDF Free Download

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धारा 28 इस प्रकार है-

“कोई व्यक्ति किसी रोग, दोष अथवा अंगहीनता के आधार पर इस अधिनियम के द्वारा विहित आधारों को छोड़कर अन्य किसी आधार पर दाय के लिये निर्योग्य नहीं होगा।”

निर्योग्यता का प्रभाव-धारा 27 में यह कहा गया है कि सम्पत्ति इस प्रकार न्यागत होगी जैसे कि निर्योग्य व्यक्ति निर्वसीयत के जीवन-काल में ही मर गया था। अत: निर्योग्य व्यक्ति अस्तित्व में न होने के कारण दाय से अपवर्जित किया जाता है। इस सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 27 अवलोकनीय

“यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने से इस अधिनियम के अधीन निर्योग्य कर दिया गया है तो सम्पत्ति इस प्रकार न्यागत होगी जैसे कि ऐसा व्यक्ति निर्वसीयत के पूर्व मर गया हो।”

जैसा कि निर्योग्य व्यक्ति निर्वसीयत के पूर्व ही मरा हुआ माना जाता है, इससे यह अर्थ निकलता है कि कोई व्यक्ति उसके माध्यम से निर्वसीयत की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकता। वस्तुत: निर्योग्य व्यक्ति में सम्पत्ति कभी नहीं निहित होती।

अत: निर्योग्य व्यक्ति वंशक्रम में कोई स्थान नहीं प्राप्त करता और उसके माध्यम से दायाद के रूप में कोई व्यक्ति दावा नहीं कर सकता।

उत्तराधिकार के सामान्य नियम अधिनियम के अन्तर्गत-इस अधिनियम के अन्तर्गत उत्तराधिकार के कुछ सामान्य नियम दिये गये हैं जो धारा 18 से 22 में उपबन्धित है। ये नियम सभी प्रकार की अवस्थाओं में लागू होंगे। चाहे उत्तराधिकार किसी हिन्दू पुरुष के निर्वसीयत मर जाने के बाद प्रारम्भ हो अथवा हिन्दू स्त्री के निर्वसीयत मरने के बाद शुरू हो।

सगा-सम्बन्धी तथा सौतेला-सम्बन्धी–धारा 18 के अनुसार निर्वसीयत का सगा सम्बन्धी सौतेला सम्बन्धी की अपेक्षा दाय प्राप्त करने में अधिमान्य होगा। किन्तु यह नियम महत्वपूर्ण शर्त से उपबन्धित है जो धारा 18 में विहित की गई है। धारा 18 के अनुसार

“निर्वसीयत का दायाद, जो सगा-सम्बन्धी है सौतेला सम्बन्धी की अपेक्षा अधिमान्य होगा, यदि सम्बन्ध का स्वरूप अन्य प्रत्येक बात में एक समान हो।”

समान पूर्वज से तथा एक ही स्त्री से उद्भूत दायाद उन दायादों की अपेक्षा अधिमान्य होंगे जो सामान्य पूर्वज तथा भिन्न-भिन्न पत्नियों से उद्भूत हुए हैं।

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– इस सम्बन्ध में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस मत की पुन: अभिपुष्टि की कि जहाँ सामान पूर्वज से तथा एक ही स्त्री से उद्भूत दायाद उन दायादों की अपेक्षा अधिमान्य होंगे जो सामान पूर्वज तथा भिन्न-भिन्न पत्नियों से उत्पन्न हुये हैं अर्थात् सगे भाई-बहन सौतेले भाई बहन की अपेक्षा अधिमान्य होंगे। प्रस्तुत मामले में एक हिन्दू पुरुष अपनी सम्पत्ति को निर्वसीयत छोड़कर मर जाता है जिसको कोई भी अपनी सगी सन्तान नहीं थी बल्कि उसके परिवार में उसकी सगी बहन एवं सौतेले भाई मौजूद थे। उपरोक्त मामले में उसकी सगी बहन ने अपने मृतक भाई की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये न्यायालय में अपना दावा प्रस्तुत किया। उसके सौतेले भाई ने न्यायालय के समक्ष यह तर्क दिया कि वह सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकारी है क्योंकि उसकी बहन प्रथम श्रेणी की उत्तराधिकारी नहीं है। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने उसके सौतेले भाई के तर्क को अस्वीकार करते हुये हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 18 के अन्तर्गत यह अभिनिर्धारित किया कि उसकी सगी बहन ही ऐसी सम्पत्ति को प्राप्त करने की अधिकारी होगी क्योंकि सगा सम्बन्धी सौतेले सम्बन्धी की अपेक्षा दाय प्राप्त करने में अधिमान्य होगा।

निर्वसीयत से जब दायादों के सम्बन्ध का स्वरूप एक समान नहीं होता तो यह नियम लागू

  1. कीलू मदन मोहन बनाम गोरकला वरहालू, ए० एल० जे० आंध्र प्रदेश 122 NOCI

नही होता | यदि दायाद गोत्रज है तथा दूसरा बन्धु अथवा सांपाश्विक है अथवा यदि एक दायाद वर्ग

है तथा दूसरा अनुसूची के वर्ग (2) का दायाद है तो सम्बन्ध एक समान नहीं होता और नियम लागू नहीं

नहीं होता। इस प्रकार यदि धारा 13 के अनुसार आरोहण तथा वंशक्रम की डिक्री एक ही है तो उस दशा में भी यह नियम अनुवर्तनीय नहीं होगा। यह एक उल्लेखनीय बात है वर्तमान विधि भी पूर्व हिन्दू विधि के नियमों के अनुरूप है।

लग-भेद के बावजूद पुरुष तथा स्त्री नातेदार जो पूर्ण रक्त से सम्बन्धित हैं अधिरक्त से सम्बन्धित मौतेले नातेदारी की अपेक्षा अधिमान्य होंगे यदि उनके वंश-क्रम की डिक्री एक समान है। धारा मत परुष-स्त्री दायादों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है। वामन गोविन्द शिन्दोर नाम गोपाल बाबूराम चक्रदेव के निर्णय में बम्बई उच्च न्यायालय ने पुरुषोत्तम रमन गोकले बनाम बाट रामचन्द्र के निर्णय को निरस्त कर दिया। पुरुषोत्तम रमन गोकले के निर्णय में न्यायालय ने

कहा था कि जहाँ सगी बहिन तथा चचेरी बहिन के बीच उत्तराधिकार का प्रश्न है वहाँ एक सगी दिन चचेरी बहिन को अपवर्जित करेगी। किन्तु जहाँ एक चचेरे भाई तथा सगी बहिन के बीच उत्तराधिकार का प्रश्न है वहाँ चचेरा भाई सगी बहिन को अपवर्जित करेगा और चचेरा भाई उत्तराधिकार ग्रहण करेगा। इस उपर्युक्त मत को वामन गोविन्द शिन्दोर के निर्णय में निरस्त कर दिया गया और यह कहा गया कि यदि पुरुष तथा स्त्री दायाद एक डिग्री के हैं तो उनमें कोई भेद-भाव नहीं किया जायेगा और वे समान रूप से सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करेंगे।

पुन: नारायन बनाम पुष्परंजिनी के वाद में केरल उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहाँ उत्तराधिकार का प्रश्न सगी बहिन एवं चचेरे भाई के बीच है वहाँ सगी बहिन चचेरे भाई को अपवर्जित करके सम्पत्ति दाय में प्राप्त करेगी।

श्रीमती झुगली टीकम बनाम अपर आयुक्त व अन्य, के वाद में एक हिन्दू स्त्री की निर्वसीयत मृत्यु हो गयी। उस स्त्री के कोई सन्तान नहीं थी। उसके कुटुम्ब में उसकी सगी बहिन तथा सौतले भाई बहिन मौजूद थे। मृत्योपरान्त उसकी सगी बहिन तथा सौतले भाई-बहिनों के बीच सम्पत्ति के बँटवारे के सम्बन्ध में विवाद उठा जिसको न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गयी। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ उत्तराधिकार का प्रश्न सगी बहिन एवं सौतेले भाई-बहिनों के बीच हो वहाँ सगी बहिन सौतेले भाई बहिन को अपवर्जित करके सम्पत्ति दाय में प्राप्त करेगी। ___ भँवर सिंह बनाम पूरन एवं अन्य के वाद में सहदायिकी सम्पत्ति के विभाजन पर पुत्र की मौजूदगी पर पत्रि ऐसी सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने के लिये दावा नहीं कर सकता, क्योंकि हिन्दू उत्तराधिकार आधानयम की धारा 8 के सामान्य नियमों को देखते हए यह उचित प्रतीत होता है कि निर्वसीयत मरने बाल पुरुष की सम्पत्ति अनसची के खण्ड (1) में निर्दिष्ट क्रमानुसार प्रावधानों के साथ न्यायागत होगी और “चानयम के संलग्न अनुसूची में स्वाभाविक पत्रगण एवं पुत्रियाँ प्रथम श्रेणी के वारिसों में रखे जाते हैं लोकन पौत्र को उस दशा में, जब तक पिता जीवित है सम्मिलित नहीं किया गया है।

दृष्टान्त

(1) एक सगा मामा सौतेले मामा की अपेक्षा अधिमान्य है। सगा चाचा सौतेले चाचा की अपेक्षा

1. गुरुदास बनाम मोहनलाल दास, 60 आई० ए० 189 : ए० आई० आर० 1933 पी० सी० 141।

2. ए० आई० आर० 1984 बम्बई 2081

3. ए० आई० आर० 1976 बम्बई 3751

4. ए० आई० आर० 1976 बम्बई 3751

5. ए० आई० आर० 1991 केरल 101

6. ए० आई० आर० 2004 मध्य प्रदेश 53.

7. एस० सी० सी० डी० 2008 (2)।

8. मुत्थू स्वामी बनाम मुत्थू कुमार स्वामा, (1936) 23 आई० ए० 831

अधिमान्य होगा।

(2) एक सौतेला चाचा सगे चाचा के पुत्रों की अपेक्षा अधिमान्य होगा, क्योंकि सौतेला चाचा, चाचा के पुत्र की अपेक्षा निकटतर सम्बन्धी है। इस दशा में धारा 18 का नियम लागू नहीं होगा।

संयुक्त आभोगी तथा सह-आभोगी-धारा 19 में यह स्पष्टत: विहित है कि दो या दो से अधिक दायाद सह-आभोगी के रूप में उत्तराधिकार प्राप्त करेंगे न कि संयुक्त आभोगी के रूप में। यह धारा 19 से स्पष्ट होगा जो इस प्रकार है-

“यदि दो या दो से अधिक दायाद निर्वसीयत की सम्पत्ति के एक उत्तराधिकारी होते हैं तो वे सम्पत्ति को

(क) इस अधिनियम में स्पष्ट रूप से प्रदत्त, अन्यथा उपबन्धित को छोड़कर व्यक्तिपरक न कि पितृपरक आधार प्राप्त करेंगे, और

(ख) सामान्य आभोगियों के रूप में न कि संयुक्त आभोगियों के रूप में प्राप्त करेंगे।” अधिनियम के पारित होने के बाद सह-विधवायें तथा दो या दो से अधिक पुत्रियाँ सम्पत्ति संयुक्त आभोगी के रूप में नहीं, किन्तु सह-आभोगी के रूप में ग्रहण करेंगी और पुन: जब कि स्त्री दायाद धारा 14 के अनुसार सम्पत्ति में पूर्ण हक प्राप्त कर लेते हैं तो धारा 15 तथा 16 के अन्तर्गत ऐसी स्त्री की मृत्यु के बाद सम्पत्ति उसके अपने दायादों को चली जायेगी। इस प्रकार सुन्दरमल बनाम सदाशिव वाले वाद में यह कहा गया था कि सह-विधवायें सह-आभोगी की प्रास्थिति में हैं, अत: किसी भी विधवा को यह हक होगा कि वह अतिचारी को निष्कासित करने के लिये सह-विधवा को बिना पक्षकार बनाये हुए वाद संस्थापित करे।।

उच्चतम न्यायालय ने अभी हाल में इस बात की अभिपुष्टि की है कि धारा 19 के अन्तर्गत यह उपबन्धित किया गया है कि दो या अधिक वासियों द्वारा उत्तराधिकार की दशा में प्रति व्यक्ति न कि प्रति शाखा परक सम्पत्ति का न्यागमन होगा और साथ ही वे साम्यिक अभिधारियों के रूप में न कि संयुक्त किरायेदारों के रूप में सम्पत्ति को प्राप्त करेंगे।

गर्भस्थ बालक-धारा 20 में गर्भस्थ बालक के विषय में नियम प्रदान किया गया है जो इस प्रकार है-

“जो बालक निर्वसीयत की मृत्यु के समय गर्भ में स्थित था और तत्पश्चात् जीवित हुआ है, निर्वसीयत के दायभाग के विषय में उसके वही अधिकार होंगे जो यदि निर्वसीयत की मृत्यु से पूर्व उत्पन्न हुआ होता तो उसके होते और ऐसी अवस्था में दाय निर्वसीयत की मृत्यु की तिथि से प्रभावशील होकर उसमें निहित समझी जायेगी।” इस धारा के अनुसार गर्भस्थ बालक उस दशा में दाय प्राप्त करता है, यदि(1) इस प्रकार का बालक निर्वसीयत की मृत्यु के समय गर्भ में आ गया था। (2) इस प्रकार का बालक बाद में जीवित उत्पन्न हुआ था।

यदि उपर्युक्त दोनों शर्ते पूरी हो गयी हैं तो इस प्रकार का बालक उसी प्रकार से दाय प्राप्त कर सकता है जैसे कि वह यदि निर्वसीयत की मृत्यु के पूर्व जीवित होता तो प्राप्त करता। कोई भी पत्र अथवा पुत्री, जो निर्वसीयत की मृत्यु के समय माता के गर्भ में है, विधि की दृष्टि में वह वास्तविक रूप से अस्तित्व में समझा जाता है तथा अपने जन्म के बाद वह ऐसे व्यक्ति को सम्पत्ति से अनिहित कर देता है जिसने कुछ काल के लिये सम्पत्ति ले ली थी और जो सम्पत्ति में उससे ऊपर हक रखता

1.गुरुदास बनाम मोहनलाल दास, 1933 पी० सी० 1411

2. गंगा सहाय बनाम केसरी, 1925 पी०सी० 81

3. ए० आई० आर० 1959 मद्रास 3491

था। समसामयिक मृत्यु-धारा 21 के अन्तर्गत मृत्यु के विषय में उपधारणा बनाई गई है। धारा 21 इस प्रकार है-

“जहाँ दो व्यक्ति ऐसी परिस्थिति में मरे हैं जिसमें यह अनिश्चित है कि क्या उसमें से कोई और यदि कोई रहा हो तो कौन-सा दूसरे की अपेक्षा उत्तरजीवी रहा, वहाँ जब तक कि विरुद्ध न सिद्ध हो, सम्पत्ति के उत्तराधिकार सम्बन्धी सब प्रयोजनों के लिये यह उपधारणा

की जायेगी कि कम आयु वाला अधिक आयु वाले का उत्तरजीवी रहा।” इस धारा में एक उपधारणा उस दशा में निर्मित की जाती है जब कि यह संदिग्धपूर्ण रहता है अथवा वस्तुतः यह असम्भव होता है कि कौन किसका उत्तरजीवी रहा। ऐसी दशा में यह विधिक दृष्टि से मान लिया जाता है कि कनिष्ठ ज्येष्ठ का उत्तरजीवी रहा।

अंश प्राप्त करने के अधिमान्य अधिकार-धारा 22 में इस प्रकार के अधिकार कुछ व्यक्तियों को प्रदान किये गये हैं। धारा 22 इस प्रकार है-

(1) जहाँ अधिनियम के प्रारम्भ होने के बाद निर्वसीयत की किसी अचल सम्पत्ति में अथवा उसके द्वारा या तो अकेले या दूसरे के साथ किये जाने वाले किसी व्यवसाय में हक अनुसूची के वर्ग 1 में उल्लिखित दो या दो से अधिक दायादों को न्यागत होता है तथा ऐसे दायादों में से कोई उस सम्पत्ति अथवा व्यवसाय में अपने हक के लिये हस्तान्तरण की प्रस्थापना करता है, वहाँ ऐसे हस्तान्तरित किये जाने के लिए प्रस्थापित हित को अर्जित करने का अधिमानपूर्ण अधिकार दूसरे दायाद को प्राप्त होगा। बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मामले में इस बात की अभिपुष्टि की कि उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 22 का प्रावधान तब तक लागू नहीं होगा जब तक ऐसी पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में बँटवारे की बात दायादों द्वारा उठायी न गई हो।

(2) इस धारा के अन्तर्गत, मृतक की सम्पत्ति में कोई हक जिस प्रतिफल के लिए हस्तान्तरित किया जा सकेगा, वह पक्षकारों के मध्य किसी करार के अभाव में इस उद्देश्य से अपने से किये गये आवेदन पर न्यायालय द्वारा अवधारित किया जायेगा और यदि हक को अर्जित करने के लिए प्रस्तुत न हो तो ऐसा व्यक्ति आवेदक के, या उससे प्रासंगिक सब व्यय को देने के लिये दायित्वाधीन होगा।

(3) यदि इस धारा के अन्तर्गत किसी हक के अर्जित करने की प्रस्थापना करने वाले अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित दो या दो से अधिक दायाद हों तो उस दायाद को अधिमान्यता प्रदान की जायेगी जो हस्तान्तरण के लिये सर्वाधिक प्रतिफल देने के लिये पेशकश करता है-

व्याख्या-इस धारा में न्यायालय से वह न्यायालय अभिप्रेत है जिसके क्षेत्राधिकार की सीमाओं के अन्तर्गत वह अचल सम्पत्ति स्थित है या व्यवसाय किया जाता है। यह ऐसे अन्य न्यायालय को साम्मालत करता है जिसे कि राज्य सरकार राजकीय गजट में अधिसूचना द्वारा इस निमित्त उल्लिखित करे।

अनुसूची के वर्ग (1) के एक या एक से अधिक सदस्यों का हक अर्जित करने का अधिकार अन्य सह-दायाद इस धारा के अन्तर्गत प्राप्त करते हैं. पूर्वक्रय का अधिकार नहीं वरन् सम्पात का आधकार है। वस्तुत: पूर्वक्रय का अधिकार मुस्लिम विधि की देन है। हिन्दू विधि को अर्जित करने का अधिकार है। वस्तुतः पूवक्रय

1. मेन की हिन्दू विधि, बयवा बनाम पारोतबा, 1933 बम्बई 126 भी दाखए

2. रामलाल मनीराम नौवघींग बनाम मनीराम पातीराम नौवघिंग व अन्य, ए० आई० आर० 2008 (एन० ओ० सी०) बम्बई 1219।

में इस प्रकार के अधिकार का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में, स्मृतियाँ तथा भाष्य दोनो मौन है। देश के कुछ भाग में पूर्वक्रय का अधिकार प्रथाओं के ऊपर आधारित होने के कारण मान्य समझा जाता था। कुछ प्रान्तो में हकशुफा (पूर्वक्रय) का अधिकार अधिनियम द्वारा संहिताबद्ध कर दिया गया है। अत: वह उस प्रदेश की मान्य विधि के अन्तर्गत आ जाता है और सभी व्यक्तियों के लिये लागू होता है।

यह अधिकार सहदायाद के सम्बन्ध में लागू होता है और वह भी, जब दायाद अनुसूची के वर्ग (1) के दायाद हो। मुस्लिम विधि में शफी शरीफ ही हकशुफा के अधिकार का दावा कर सकता है।

इस धारा के अन्तर्गत पूर्वक्रय के अधिकार के अधिमान्य होने के लिए विहित शतों को पूरा करना आवश्यक है। यह व्यक्तिगत अधिकार है जो भूमि आदि से सम्बन्धित नहीं है। ये शर्ते इस

(1) वर्ग (1) के दायादों को ही प्राप्त हैअधिनियम में उल्लिखित सहदायादों में यह अधिकार अनुसूची के वर्ग (1) के दायादो को ही प्रदान किया गया है। यह अधिकार वर्ग (2) के दायादो या गोत्रजो या बन्धुओं को नहीं प्रदान किया गया है।’

(2) हस्तान्तरण के समय उपलब्ध होता है-यह तभी उपलब्ध होता है जब कि एक सह-दायाद सम्पत्ति में अथवा व्यवसाय में अपने हक को हस्तान्तरित करने की प्रस्थापना करता है। जब ऐसी प्रस्थापना सह-दायाद करता है तो निकट के दूसरे दायाद को यह अवसर दिया जाता है कि वह किसी अन्य व्यक्ति को अपवर्जित करके अपनी सुविधानुसार सम्पत्ति को ग्रहण कर ले। यह ‘हस्तान्तरण’ शब्द एक विस्तृत अर्थ में प्रयोग किया गया है जो विक्रय, दान, विनिमय अथवा अन्य किसी तरीके के हस्तान्तरण को सम्मिलित करता है जिससे सम्पत्ति अथवा व्यापार के हक को हस्तान्तरित कर दिया जाता है।

(3) प्रतिफल-हस्तान्तरण पूर्व करार के प्रतिफल के आधार पर ही निश्चित किया जाता है। यदि प्रतिफल पक्षकारों में नहीं तय होता तो न्यायालय द्वारा वह आवेदनपत्र पर निर्धारित किया जायेगा। आवेदन किसी पक्षकार द्वारा किया जा सकता है।

(4) न्यायालय जहाँ आवेदनपत्र दिया जायेगा-निम्नलिखित न्यायालयों में आवेदनपत्र दिये जा सकते है-

(1) वह न्यायालय जिसके क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत

(अ) अचल सम्पत्ति स्थित है।

(ब) व्यवसाय किया जा रहा है। (2) राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना में उल्लिखित न्यायालय।

(5) सर्वाधिक प्रतिफल देने वाले को अधिमान्यता-उपधारा (3) में यह नियम विहित किया गया है कि सह-दायादों में सर्वाधिक प्रतिफल देने की पेशकश करने वाले को अधिमान्यता प्रदान की जायेगी। इस सम्बन्ध में अधिमान्यता इस आधार पर नहीं दी जायेगी कि उसने सर्वाधिक प्रतिफल देने की पेशकश पहले की अथवा कौन अधिक निकट का नातेदार है। इस उपधारा के अन्तर्गत बाहरी व्यक्ति की पेशकश नहीं मानी जाती।

मल्ला के अनुसार, यह धारणा उचित शब्दों में लेखबद्ध नहीं है। इसमें यह नहीं बताया गया है कि अधिमान्यता का अधिकार कब और कैसे प्रयोग किया जायेगा। इस धारा का चयन शिथिल शब्दों में किया गया है तथा हस्तान्तरण’ शब्द का प्रयोग कुछ कठिनाइयाँ उत्पन्न कर सकता है।

1. अवध बिहारी सिंह बनाम गजाधर जेपुरिया, 1954 एस० सी० 4171

2. डी० पी० सेती बनाम ज्ञान चन्द्रप्पा, ए० आई० आर० 1970 मैसूर 871

3. तारकदास बनाम सुनील कुमार, ए० आई० आर० 1980 कल० 531

कदाचित यह ‘हस्तान्तरण’ शब्द पूरी तौर से सम्पत्ति बेच देने के आशय में प्रयुक्त है। किन्तु ऐसे तरीके प्रयोग किये जा सकते हैं जिनसे इस धारा में उल्लिखित उद्देश्य समाप्त किया जा सकता

निवास-गृह के विषय में विशेष उपबन्ध-धारा 23 में यह उपबन्ध किया गया है-“जहाँ निमीयत हिन्दू अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित पुरुष और स्त्री दायाद को अपने पीछे उत्तरजीवी कोडता है और उसकी सम्पत्ति में उसके अपने परिवार के सदस्यों के पूर्णत: दखल में कोई निवास-गृह सम्मिलित है, वहाँ इस अधिनियम में किसी बात के अन्तर्विष्ट होते हुए भी किसी ऐसे स्त्री दायाद के निवास-गृह के विभाजन करने के दावे का अधिकार तब तक उत्पन्न नहीं होगा जब तक कि पुरुष टायाद उसमें अपने क्रमागत अंशों का विभाजन पसन्द न करे, किन्तु स्त्री दायाद उसमें निवास करने के लिए हकदार होगी।”

परन्तु जहाँ ऐसी स्त्री दायाद पुत्री है, वहाँ वह निवास-गृह में निवास करने के अधिकार के लिए उसी दशा में हकदार होगी जब कि वह अविवाहित है अथवा अपने पति द्वारा परित्यक्त कर दी गई है या उनसे पृथक हो गयी है या विधवा है। इस प्रकार कोई भी विवाहिता पुत्री परिवार के निवास-गृह में निवास करने का अधिकार नहीं रखती।

स्त्री दायाद का विभाजन करने का अधिकार-संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के लिए धारा 23 में यह उपबन्ध प्रदान किया गया है कि एक हिन्द्र स्त्री, यद्यपि परिवार के निवास-गृह में, जो परिवार के सदस्यों के पूर्ण कब्जे में है, रहने की अधिकारिणी हो सकती है; किन्तु वह विभाजन के लिए तब तक दावा नहीं कर सकती जब तक कि पुरुष दायाद स्वयं सम्पत्ति के विभाजन तथा अपने अंश को अलग करना पसन्द न करे। यह धारा तभी लागू होती है जबकि निवास-गृह या तो पुरुष निर्वसीयत द्वारा या स्त्री निर्वसीयत द्वारा छोड़ा गया हो तथा निर्वसीयत ने अपने पीछे के वर्ग (1) में के स्त्री अथवा पुरुष दायाद को उत्तरजीवी छोड़ा है।

मुखन शाह बनाम राधा देवी व अन्य के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू संशोधन अधिनियम के पूर्व धारा 23 के अन्तर्गत कोई भी हिन्दू स्त्री जो प्रथम वर्ग की सूची के अन्तर्गत आती हो तथा वह अपने पिता के निवास गृह में रह रही हो तो विभाजन में वह सम्पत्ति तभी प्राप्त कर सकती है जब ऐसी सम्पत्ति के विभाजन की बात पुरुष दायादों द्वारा उठायी गयी हो।

जानकी अम्मल बनाम टी० ए० एस० पलानी मदालियर के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय न यह अभिनिर्धारित किया कि स्त्री दायाद द्वारा संयुक्त हिन्दू-परिवार के निवास स्थान में विभाजन तभी माना जा सकता है जबकि संयुक्त परिवार के अन्य पुरुष सदस्य सम्पत्ति के विभाजन को चाहते हों। स्ना दायाद के विभाजन सम्बन्धी अधिकार पर यह नियन्त्रण तभी तक आरोपित नहीं है जब तक संयुक्त परिवार में पुरुष दायाद एक से अधिक हैं, बल्कि एक ही पुरुष सदस्य के होने पर भी जब तक वह नहीं चाहता, स्त्री दायाद संयुक्त परिवार के निवास स्थान में विभाजन नहीं करवा सकती।

किन्तु बम्बई उच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय से भिन्न मत इस धारा की व्याख्या के सम्बन्ध में व्यक्त किया है। अनन्त गोपाल राव शिन्डे बनाम जानकी बाई गोपाल राव’ के इस वाद म न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई पुरुष हिन्द निर्वसीयत केवल एक पुरुष दायाद आर अन्य स्त्री दायादों को छोड़कर मरता है तो वहाँ स्त्री दायाट धारा 23 के अधीन निवास-गृह का बटवारा करवा सकती है। स्त्री दायादों के बँटवारा सम्बन्धी अधिकार पर तभी तक नियन्त्रण तथा प्रतिबन्ध

1. गणेश चन्द्र बनाम रुक्मिणी, ए० आई० आर० 1971 उड़ीसा 651

2. एम० सी० चिम्मा राजू बनाम श्रीमती पुत्ताकेनचेम्मा, ए० आई० आर० 1990 4

3. ए० आई० आर० 2009 पटना 141

4. ए० आई० आर० 1981 मद्रास 621

5. ए० आई० आर० 1984 बा० 3191

है जब तक अन्य सभी पुरुष दायाद संयुक्त स्थिति को समाप्त नहीं कर देना चाहते। किन्तु जहाँ एक हो पुरुष दायाद है वहाँ संयुक्त परिवार नहीं कहा जा सकता और न ही संयुक्त परिवार का निवास-गृह, वहाँ सो दायाद के उस गृह के बँटवारा सम्बन्धी अधिकार को टाला नहीं जा सकता और न ऐसा करने का उद्देश्य ही इस धारा में आशयित है। यदि हम इसके विपरीत इस धारा का अर्थ निकालते है अर्थात् एक ही पुरुष दायाद की स्थिति में भी वह गृह का बँटवारा तब तक नहीं करवा सकती जब तक कि वह पुरुष दायाद न चाहे तो उस स्थिति में इस धारा का सहज एवं स्वाभाविक अर्थ समाप्त हो जाता है तथा सो दायाद में निहित हक जो वह पुरुष दायाद के साथ धारण करती है, निकभावी हो जाता है।

न्यायालय ने पुनः यह बतलाया कि धारा 23 की व्याख्या में एक मात्र पुरुष दायाद तथा स्त्री दायादों के मध्य को कठिनाइयों का तुलनात्मक विचार करने का उद्देश्य नहीं है। जहाँ एक मात्र पुरुष दायाद है और उसकी सौतेली बहिन अथवा भतीजी इस प्रकार दो ही वर्ग 1 के दायाद है, वहाँ खी दायाद को इच्छा पर बँटवारा न कराने पर स्त्री दायादों की कठिनाइयाँ पुरुष दायाद की अपेक्षा अधिक होगी क्योंकि वह स्त्री दायाद विधि द्वारा प्रदत्त एक प्रकार के अधिकार से वंचित रहेगी।

बम्बई उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त मत का समर्थन उड़ीसा न्यायालय के निर्णय, महन्ती मतपालू बनास ओलुरू अप्पनम्मा के मामले में किया है। न्यायालय का कथन है कि जहाँ एक ही पुरुष दायाद है और उसके साथ अन्य स्रो दायाद है वहाँ वह स्त्री दायाद अपने अंश का विभाजन आवास-गृह में करवा सकती है क्योंकि उस स्थिति में इस धारा के अन्तर्गत उसको विभाजन के अधिकार से वंचित नहीं किया गया है। यदि एकमात्र पुरुष दायाद को ही इस प्रकार की परिस्थिति में विभाजन करवाने का अधिकार दे दिया जायेगा तो वह विभाजन कभी नहीं करवायेगा और स्त्री दायाद को उस स्थिति में विभाजन करवाने के अधिकार से वंचित करना या उसको इन्कार करने का आशय यह होगा कि आवास-गृह में उसके अधिकार को व्यावहारिक रूप से सदैव के लिये समाप्त कर देगा।

इस सम्बन्ध में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने श्रीमती पुष्पा मुकर्जी बनाम स्मृतिना मुकर्जी व अन्य के मामले में न्यायालयों के मतभेद को समाप्त करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्द्र उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पश्चात् अब महिलाओं को अनुसूची (1) में स्थान प्राप्त हो चुका है, अब ऐसी स्त्रियाँ, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत अपनी पैतृक समत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में किसी भी समय माँग कर सकती हैं।

लेकिन यदि ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पूर्व हो चुका है तो ऐसी सम्पत्ति में विभाजन हेतु पुनः 2005 के अधिनियम के पश्चात् वाद नहीं ला सकती।’

पुनः यह धारा केवल ऐसे निवास-गृह के सम्बन्ध में लागू होती है जो परिवार के सदस्यों द्वारा उसके कब्जे में हो। यहाँ परिवार’ शब्द निर्वसीयत के परिवार के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।

स्त्री दायाद के निवास-गृह सम्बन्धी अधिकार-इस धारा में स्त्री दायाद के निवास-गृह का अधिकार संरक्षित रखा गया है। पृथक् निवास-गृह का दावा करने में स्त्री-दायाद यह कह सकती है कि वह निवास-गह के विशेष भाग को अपनाना चाहती है। पुत्री निवास-गृह की माँग तभी कर सकती है जब कि वह अविवाहित दशा में है, अथवा अपने पति द्वारा परित्याग कर दी गई है अथवा अपने पति से पृथक् हो गई है अथवा वह विधवा है।

सम्पत्ति का राजगामी होना-अधिनियम की धारा 29 के अनुसार यदि कोई निर्वसीयत ऐसी

  1. गयी है।

2. ए० आई० आर० 1993 उड़ीसा 361

3. ए० आई० आर० 2008 (एन० ओ० सी०) 1162 कलकत्ता।

4. जी० शेखर बनाम गीता व अन्य, ए० आई० आर० 2009 एस० सी०26461

किसी दायाद को बिना जोड़े हुए मर जाता है जो उसकी सम्पत्ति को इस अधिनियम के अनुसार दाय में प्राप्त करने के योग्य होता है तो सम्पत्ति राजगामी होकर सरकार में निहित हो जायेगी तथा सरकार सम्पत्ति को उन सभी दायित्वों एवं आभारों के साथ ग्रहण करेगी, जैसे उसके दायाद ग्रहण करते, यदि वे अस्तित्व में होते।

वसीयती उत्तराधिकार-यह अधिनियम वसीयती उत्तराधिकार के विषय में कोई विशेष बात नहीं प्रदान करता। इस सम्बन्ध में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 में अन्तर्विष्ट उपबन्ध जहाँ तक सम्भव है, लागू होता है। धारा 30 में यह कहा गया है कि कोई हिन्दू इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य वसीयती व्ययन द्वारा किसी सम्पत्ति का निर्वर्तन कर सकता है जिसको वह भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के उपबन्धों के अनुसार निर्वर्तित कर सकता था। धारा 30 के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। धारा 30 इस प्रकार है

(1) कोई हिन्दू ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य वसीयती व्ययन द्वारा भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 या हिन्दुओं के लिये प्रवर्तित और किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि के उपबन्धों के अनुकूल व्ययित कर सकेगा जो ऐसे व्यक्ति द्वारा व्ययित किये जा सकने योग्य है।’

व्याख्या–मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में पुरुष हिन्दू का हक या तारवाड, तावषि, इल्लम, कुटुम्ब या कवरू की सम्पत्ति में तारवाड, तावषि, इल्लम, कुटुम्ब या कवरू के सदस्य का हक इस अधिनियम में अथवा किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि में किसी बात के होते हुए भी इस उपधारा के अर्थों में स्वयं द्वारा व्ययन-योग्य सम्पत्ति समझा जाएगा।

(2) “हिन्द दत्तक-ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम (अधिनियम सं० 78, 1956) की धारा द्वारा निरसित।”

दान वसीयती व्ययन का स्वरूप नहीं ले सकता। सम्पत्ति में अविभक्त हित अथवा अंश का दान शून्य होता है किन्तु यदि अन्य सहदायिक इस आशय की सहमति प्रदान कर देते हैं अथवा असामान्य परिस्थिति हो तो दान वैध हो सकता है।

अब इस धारा के अन्तर्गत किसी पुरुष हिन्दू को सहदायिकी में अपने अविभक्त अंश और हित को वसीयती कथन द्वारा देने का अधिकार प्रदान कर दिया गया है।’

वसीयत द्वारा या पुरानी हिन्दू विधि के अन्तर्गत अन्य वसीयती दस्तावेज द्वारा सम्पत्ति में उसके अविभाज्य हित को निपटाने में किसी सहदायिक की असमर्थता को धारा 30 द्वारा समाप्त कर दिया गया है और अब जीवित सहदायिक वसीयत द्वारा अपनी सम्पत्ति वसीयत में दे सकेगा।

वसीयती व्ययन द्वारा निर्वर्तित की जाने योग्य सम्पत्ति इस विषय का अध्ययन निम्नलिखित दो उपशीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) अधिनियम के पूर्व की स्थिति, (2) अधिनियम के बाद की स्थिति।

(1) अधिनियम के पूर्व की स्थिति(अ) दायभाग विधि के अन्तर्गत कोई हिन्दू अपनी पृथक् एवं सहदायिकी सम्पत्ति में के अंश

को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता था। (ब) मिताक्षरा विधि में कोई भी हिन्दू अपनी पृथक अथवा स्वार्जित सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता था, किन्तु सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश का अन्य सहदायिकी

1. हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 अधिनियम संख्या 39 द्वारा प्रतिस्थापत।

2. पवित्री देवी बनाम दरबारीसिंह, (1993) 4 एस० सी० सी० 392, 3961

3. पवित्री देवी बनाम दरबारीसिंह, (1993) 4 एस० सी० सी० 392, 3961

4. सेंथी कुमार बनाम धदांपानी, ए० आई० आर० 2004 मद्रास 403।।

5. मेन की हिन्दू विधि’।

6. वीर प्रताप बनाम राजेन्द्र प्रताप, (1867) एम० आई० ए० 1381

की सहमति से भी वसीयत नहीं कर सकता।

(स) एक हिन्दू स्त्री किसी ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकती थी जो उसके अपने जीवन काल में उसकी पूर्ण सम्पत्ति थी और उसके कब्जे में थी। इस प्रकार वह ऐसी सम्पत्ति निर्वर्तित नहीं कर सकती थी जो उसकी सीमित सम्पत्ति थी।

(द) कोई हिन्दू इच्छापत्र द्वारा किसी अविभाज्य सम्पत्ति को भी निर्वर्तित कर सकता था जब तक कोई ऐसी प्रथा न हो जो ऐसे निर्वर्तन अथवा अन्यसंक्रामण को वर्जित करती हो अथवा जिसके अनुसार भूधृति (Tenure) का अन्यसंक्रामण नहीं किया जा सकता था।

(2) अधिनियम के बाद की स्थितिअधिनियम ने इच्छापत्र द्वारा सम्पत्ति के निर्वर्तन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये हैं। अब स्थिति इस प्रकार है-

(अ) पुरुष हिन्दू मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकने के लिये समर्थ बना दिया गया है। इस प्रकार कोई भी हिन्दू, चाहे वह दायभाग विधि से अथवा मिताक्षरा विधि से प्रशासित हो, सहदायिकी सम्पत्ति में भी अपने हक को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता है। इस प्रकार के प्रावधान का उद्देश्य संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को छिन्न-भिन्न होने से बचाना है।

(ब) प्रथात्मक अविभाज्य सम्पदा का भी इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तन किया जा सकता है।

(स) स्त्री-सम्पदा समाप्त कर दी गई और अब इस प्रकार की सम्पदा यदि किसी स्त्री के कब्जे में है तो वह सम्पूर्ण स्वामिनी बना दी गई है। अब वह इच्छापत्र द्वारा सभी सम्पत्तियों का निर्वर्तन कर सकती है। तारवाड, तावषि, कुटुम्ब, कवरू, इल्लम् एवं स्थानम् की सम्पत्ति का भी निर्वर्तन इच्छापत्र द्वारा किया जा सकता है।

निरसन-अधिनियम की धारा 61 ने हिन्दू दाय विधि (संशोधन) अधिनियम, 1929 को भी निरसित कर दिया।

1. लालता प्रसाद बनाम महादेव जी, 42 इलाहाबाद 461; केशल लाल बनाम बाई देवी, 44 बी० एल० आर० 839; लक्ष्मण बनाम रामचन्द्र, 71 आई० ए० 1811

2. लालता प्रसाद बनाम महादेवी जी, 42 इलाहाबाद 461; केशव लाल बनाम बाई देवी, 44 बी० एल० आर० 839; लक्ष्मण बनाम रामचन्द्र, 71 आई० ए० 1811

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